Sunday, 16 November 2025

श्वास के सोपान को चढ़ता गया मैं - एक गीत

 

श्वास के सोपान को चढ़ता गया मैं।
आस औ विश्वास को गढ़ता गया मैं।

जन्म से ले मृत्यु तक जीवन नहर है।
ठाँव हैं प्रति पलों के क्षण भर ठहर है।
ज्योति आभा देह में चेतन सुवासित।
रेख है प्रारब्ध की अंजुल सुशासित।
समय की गति को निरत पढ़ता गया मैं।

मील के पत्थर बहुत थे यात्रा में।
सुख मिले दुख भी बहुत थे मात्रा में।
कर्म की कुछ शिलाओं पर नाम मेरा।
धर्म के संसार में था धाम मेरा।
रात-दिन प्रभु नाम को कढ़ता गया मैं।

नाव जीवन की चली भवसिन्धु में है।
आयु का परिणाम संचित बिन्दु में है।
धर्म की पतवार थामें मैं चला हूँ।
ईश करुणा में, उसीकी मैं कला हूँ।
शुद्ध कर मन धाम छवि मढ़ता गया मैं।

आयु ज्यों-ज्यों बढ़ी श्वासे घट रही हैं।
यात्रा में खाइयाँ भी पट रही हैं।
स्वर्ण पिंजर में विकल मन सारिका है।
उड़ चलेगी एक दिन नभ तारिका है।
पश्चिमी अवरोह में बढ़ता गया मैं॥

सुधा अहलुवालिया

Sunday, 9 November 2025

मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना - एक गीत

 

हो कृपा की वृष्टि जग पर वामना
मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना॥

नाव मेरी प्रभु फँसी मँझधार है,
हाथ में टूटी हुई पतवार है,
दूर होता जा रहा संसार है,
अब न जीवन का यहाँ आधार है,

हाथ मेरा तुम सदा प्रभु थामना।
मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना॥1॥

हर तरफ़ कैसा अँधेरा छा रहा,
अब कहीं कुछ भी नहीं दिख पा रहा,
धुन्ध में जीवन बिखरता जा रहा,
इस धुएँ से दम निकलता जा रहा,

प्रभु! अँधेरों से न अब हो सामना।
मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना॥2॥

सत्य शिव की राह यह छूटे नहीं,
कल्पना की डोर प्रभु टूटे नहीं,
नव सृजन का स्वप्न हर साकार हो,
सत्य शिव सुन्दर जगत आधार हो,

साथ देना तुम नहीं करना मना।
मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना॥3॥

*** कुन्तल श्रीवास्तव

Saturday, 1 November 2025

न्याय के मंदिर अपावन हो रहे

 

न्याय के मंदिर अपावन हो रहे।
स्वार्थ-वश वे अस्मिता निज खो रहे।

व्यर्थ है इंसाफ़ की उम्मीद अब,
सत्य कहने की सजाएँ ढो रहे।

न्याय के चंगुल फँसी है ज़िंदगी,
पक्षधर इंसानियत के रो रहे।

बाग वे सौहार्द का हर काट कर,
बीज नफ़रत के धरा पर वो रहे।
बागवाँ खुद लूटते अपना चमन,
हैफ़ पहरेदार सारे सो रहे।

हो रहा खिलवाड़ अस्मत से यहाँ,
हो गए भक्षक वो रक्षक जो रहे।

बह रही है गंग भ्रष्टाचार की,
'चंद्र' सारे हाथ उसमें धो रहे।

चंद्र पाल सिंह 'चंद्र'

Sunday, 26 October 2025

प्रकाश पुंज - एक गीत

 

प्रकाश पुंज सूर्य से प्रदीप्त आभ पाइए।
घने तिमिस्र को मिटा सुरम्य पंथ लाइए।
उजास ज्ञान विश्व में स्व बाँटता रहा सदा।
सुतीक्ष्ण बुद्धि, अंध-पंथ काटता रहा यदा।
प्रभात रश्मि वाण साध लक्ष्य भेद जाइए।
प्रकाश पुंज सूर्य से प्रदीप्त आभ पाइए।
स्व अश्व रास साधना रथी अमान चेतना।
सुस्वर्ण आभ भाल-बिन्दु अंबरांत भेदना।
पतंग रूप शुभ्र भाव में दिगंत गाइए।
प्रकाश पुंज सूर्य से प्रदीप्त आभ पाइए।
प्रगाढ़ सप्त रंग राग अंग-अंग में सजे।
रचे अनंत चित्र माल पश्चिमी दिशा रजे।
भरें स्वभक्ति भाव में अथाह शक्ति छाइए।
प्रकाश पुंज सूर्य से प्रदीप्त आभ पाइए।
छुपे कहीं जरा प्रभा, मयंक आरसी सजे।
कला विधान नित्य ही नई सुयामिनी रजे।
प्रमाण पत्र बाँच पद्म बावली खिलाइए।
प्रकाश पुंज सूर्य से प्रदीप्त आभ पाइए॥
अंबरांत / क्षितिज
सुधा अहलुवालिया

Sunday, 19 October 2025

दीपोत्सव पर तोटक छंद (।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ)

 

दश आनन मार दिया रण में। सब गर्व मिला वसुधा कण में।

छवि राम बसी सबके उर में। विजयोत्सव दीप जले घर में।।


दस पाप हरे तन से मन से। सत धर्म जयी बरसा घन से।

वनवास समापन की घड़ियाँ। जननी बुन हार रही कलियाँ।।


रघुवीर पधार रहे पुर में। जयकार किया सबने सुर में।

नर - नार मनोरथ पूर रहे। नयनों ठहरा दुख भार बहे।।


गगरी जल की सिर पे धर के। पथ फूल बिखेर रहीं सर के।

जननी धरि धीर खड़ी मग में। दुख रोकर आज पड़ा पग में।।


सुख चौदह वर्ष बिता वन में। घर पाकर फूल रहा मन में।।

जननी सबका मुख चूम रही। कपि केवट भाग्य न जात कही।।


धर रूप अनूप खड़े सुर भी। लखि राम रहे गज कुक्कुर भी।

सरयू हरषी वसुधा सरसी। सुख से भर के अखियाँ बरसी।।


जय राम रमापति पाप हरो। भव प्रीति भरी मन दूर करो।

शरणागत के सिर हाथ धरो। मन में प्रभु भक्ति -विराग भरो।।

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डॉ. मदन मोहन शर्मा

सवाई माधोपुर, राज.


Sunday, 12 October 2025

पैसा ही वरदान जब - दोहे

 

पैसा ही वरदान जब, पैसा ही अभिशाप।
करे आप को तू यहाँ, तू को कर दे आप॥
शानोशौकत ऐश सब, दुःख-व्याधि-संताप।
पैसे से सब-कुछ मिले, पुण्य कमा लो पाप॥

सब-कुछ ही संभव यहाँ, कैसी भी हो माप।
जब इंसाँ का क़द बढ़े, बढ़े ज़मीं की नाप।।

जिसको देखो वह करे, निशि दिन एक विलाप।
ख़ूब मुझे पैसा मिले, समझो भले प्रलाप॥

कलियुग का जप तप यही, पैसों का है जाप।
पैसों से भाई-बहन, पैसों से माँ - बाप॥

*** रमेश उपाध्याय

Sunday, 5 October 2025

प्रभु वंदना

 

रिक्त मानस कोष्ठ में प्रभु को बिठा श्रृंगार कर लूँ।

प्रेम पावन अश्रु निर्मल धार मंजुल स्नान वर लूँ।


मौन वाणी वर्ण लिखती स्वर्ण से नम ओस कण में।

शून्य आँखों नें जनें जो बिन्दु, मोती हार क्षण में।

ज्योति की निर्मल प्रभा में साँवरी छवि को निहारूँ।

पलक दल को बन्द कर चुपचाप अंतस को बुहारूँ।

चेतना विह्वल विरस मन नेह संचित ध्यान स्वर लूँ।


आज हो संवाद प्रभु से पत्र लिखतीं कामनाएँ।

दीप्त घट-घट ज्योति उसकी पढ़ रहा सब याचनाएँ।

नित्य भरता झोलियाँ अनमिष करुण रस छलकता है।

क्यों विरस मन मौन हो संवेदना में दरकता है।

पात्रता देता वही है पात्र का संज्ञान धर लूँ।


मैं सभा में थी अकेली आहटों को टोहती थी।

आ गया है द्वार कोई बिन सुने ही मोहती थी।

भक्त मन का शुभ्र आँचल स्वच्छ पावन शून्य दर्पण।

लालसा बस प्रेम की है मन हुआ है आज अर्पण।

नाव है भवसिन्धु में माँझी लगाता पार, तर लूँ।

रिक्त मानस कोष्ठ में प्रभु को बिठा श्रृंगार कर लूँ।


*** सुधा अहलुवालिया


श्वास के सोपान को चढ़ता गया मैं - एक गीत

  श्वास के सोपान को चढ़ता गया मैं। आस औ विश्वास को गढ़ता गया मैं। जन्म से ले मृत्यु तक जीवन नहर है। ठाँव हैं प्रति पलों के क्षण भर ठहर है। ज्य...