सहज साहित्य (Sahaj Sahitya)
साहित्य में सहजता ही उसकी उन्नति की आधारशिला है।
Sunday, 16 November 2025
श्वास के सोपान को चढ़ता गया मैं - एक गीत
Sunday, 9 November 2025
मंगलमयी सृष्टि हो मन-कामना - एक गीत
Saturday, 1 November 2025
न्याय के मंदिर अपावन हो रहे
Sunday, 26 October 2025
प्रकाश पुंज - एक गीत
सुधा अहलुवालिया
Sunday, 19 October 2025
दीपोत्सव पर तोटक छंद (।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ ।।ऽ)
दश आनन
मार दिया रण में। सब गर्व मिला वसुधा कण में।
छवि
राम बसी सबके उर में। विजयोत्सव दीप जले घर में।।
दस पाप
हरे तन से मन से। सत धर्म जयी बरसा घन से।
वनवास
समापन की घड़ियाँ। जननी बुन हार रही कलियाँ।।
रघुवीर पधार रहे पुर में। जयकार किया सबने सुर में।
नर -
नार मनोरथ पूर रहे। नयनों ठहरा दुख भार बहे।।
गगरी
जल की सिर पे धर के। पथ फूल बिखेर रहीं सर के।
जननी
धरि धीर खड़ी मग में। दुख रोकर आज पड़ा पग में।।
सुख
चौदह वर्ष बिता वन में। घर पाकर फूल रहा मन में।।
जननी
सबका मुख चूम रही। कपि केवट भाग्य न जात कही।।
धर रूप
अनूप खड़े सुर भी। लखि राम रहे गज कुक्कुर भी।
सरयू
हरषी वसुधा सरसी। सुख से भर के अखियाँ बरसी।।
जय राम
रमापति पाप हरो। भव प्रीति भरी मन दूर करो।
शरणागत
के सिर हाथ धरो। मन में प्रभु भक्ति -विराग भरो।।
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डॉ.
मदन मोहन शर्मा
सवाई
माधोपुर, राज.
Sunday, 12 October 2025
पैसा ही वरदान जब - दोहे
Sunday, 5 October 2025
प्रभु वंदना
रिक्त
मानस कोष्ठ में प्रभु को बिठा श्रृंगार कर लूँ।
प्रेम
पावन अश्रु निर्मल धार मंजुल स्नान वर लूँ।
मौन
वाणी वर्ण लिखती स्वर्ण से नम ओस कण में।
शून्य
आँखों नें जनें जो बिन्दु, मोती
हार क्षण में।
ज्योति
की निर्मल प्रभा में साँवरी छवि को निहारूँ।
पलक दल
को बन्द कर चुपचाप अंतस को बुहारूँ।
चेतना
विह्वल विरस मन नेह संचित ध्यान स्वर लूँ।
आज हो
संवाद प्रभु से पत्र लिखतीं कामनाएँ।
दीप्त
घट-घट ज्योति उसकी पढ़ रहा सब याचनाएँ।
नित्य
भरता झोलियाँ अनमिष करुण रस छलकता है।
क्यों
विरस मन मौन हो संवेदना में दरकता है।
पात्रता
देता वही है पात्र का संज्ञान धर लूँ।
मैं
सभा में थी अकेली आहटों को टोहती थी।
आ गया
है द्वार कोई बिन सुने ही मोहती थी।
भक्त
मन का शुभ्र आँचल स्वच्छ पावन शून्य दर्पण।
लालसा
बस प्रेम की है मन हुआ है आज अर्पण।
नाव है
भवसिन्धु में माँझी लगाता पार, तर
लूँ।
रिक्त
मानस कोष्ठ में प्रभु को बिठा श्रृंगार कर लूँ।
*** सुधा
अहलुवालिया
श्वास के सोपान को चढ़ता गया मैं - एक गीत
श्वास के सोपान को चढ़ता गया मैं। आस औ विश्वास को गढ़ता गया मैं। जन्म से ले मृत्यु तक जीवन नहर है। ठाँव हैं प्रति पलों के क्षण भर ठहर है। ज्य...
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पिघला सूर्य , गरम सुनहरी; धूप की नदी। बरसी धूप, नदी पोखर कूप; भाप स्वरूप। जंगल काटे, चिमनियाँ उगायीं; छलनी धरा। दही ...
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जब उजड़ा फूलों का मेला। ओ पलाश! तू खिला अकेला।। शीतल मंद समीर चली तो , जल-थल क्या नभ भी बौराये , शाख़ों के श्रृंगों पर चंचल , कुसुम-...





